Monday 27 July 2020

कमाई का ज़रिया क्या ख़त्म हुआ, इनकी ज़िंदगी ही ख़त्म हो गई

दुखवा... काँसे कहें
वैश्विक बीमारी कोरोना की वजह से उपजी परिस्थितियों ने हर तबके के लोगों को महासंकट में डाल दिया, चाहे वो उच्च वर्ग हो या निम्न.. बस फर्क इतना है कि पैसे वालों का रुपयों के आँकड़े में हेरफेर हुआ, और निम्न वर्ग वालों का तो पेट ही कट गया.. इनमें सबसे बुरी स्थिति रोज़ कमाने रोज़ खाने वालों की है.. उन महिलाओं की है, जो घर-घर काम कर अपना गुज़ारा करती है, लेकिन इस महासंकट के दौर में उसके भी लाले पड़ गये.. इनके लिये ताले घरों पर नहीं, बल्कि पेट पर पड़ गये.. कमाई का ज़रिया क्या ख़त्म हुआ, इनकी ज़िंदगी ही ख़त्म हो गई.. इनकी तकलीफ़ का अंदाज़ा लगाने मात्र से ही मन विचलित हो जाता है.. ज़रा सोचिए, उन माँ पर क्या बीत रही होगी, जब बच्चे भूख से बिलखते होंगे, और मां अपने जिगर के टुकड़े के लिए कुछ नहीं कर पा रही होगी.. कहीं हालात इस क़दर बिगड़ गये हैं कि बच्चे अब लबों से कुछ नहीं कहते, बस माँ की तरफ टकटकी लगाये देखते रहते हैं, और बेबस माँ अश्क़ के सिवा कुछ नहीं दे पाती.. ये दर्द और दुख का सैलाब एक-दो नहीं बल्कि लाखों घरों का है, जहाँ काम के अभाव में अब इन आँगन में चूल्हा नहीं जलता.. सोच कर भी रूह काँप जाती है कैसे पेट काट, भूख मार कर ज़िंदगी बसर हो रही होगी.. दुखद तो ये है कि इस रात की सुबह कब होगी, अंधेरा कब छँटेगा और कब चारों तरफ उजियारा फैलेगा, किसी को नहीं पता.. यूँ तो सरकार का दावा है कि इस कोरोना काल में कई योजनाएँ चलाई जा रही है और इससे ग़रीब लाभावान्वित हो रहे हैं.. लेकिन ये सब महज़ काग़ज़ों पर है, हक़ीक़त में कहानी बिलकुल इसके विपरीत है.. समस्या ये है कि इसे अमलीजामा पहनाने के लिए कोई ख़ास कोशिश भी नहीं की जा रही है.. ऐसे में परिस्थितियां दिन ब दिन बदतर होती जा रही है.. अब तो उस पल का इंतज़ार है, जब फिर से चिड़ियों की चहचहाहट के साथ साथ ग़रीब बच्चों के लबों पर मुस्कुराहट तैर जाए.. और इनके घर आँगन में चूल्हे की आग फिर कभी ठंडी न हो..।

Wednesday 22 July 2020

शहरी ग़रीब.. बच्चों की व्यथा

शहरी ग़रीब.. बच्चों की व्यथा
ग़रीबी ये महज़ इक शब्द नहीं.. बल्कि अभिशाप है.. इसके पीछे छिपा है वो दर्द.. वो तड़प.. जिसे सिर्फ़ उसने महसूस किया, जिसने इसे जीया.. 
माँ-बाप दिहाड़ी-मज़दूरी कर चार पैसे कमा लेते थे.. दो जून की रोटी नमक के साथ पेट की आग को तो शांत कर देती थी, लेकिन कुछ सपने थे जो अब दम तोड़ रहे थे.. याद है मुझे वो दिन, काँटे से सूखे बदन पर फटे पुराने कपड़े.. बगल में दबे मैले कुचैले बस्ते, ऊँची-नीची पगडंडियों, उबड़-खाबड़ सड़कों पर भागते ये नंगे पाँव... और दिलों दिमाग में बस यही ख़ुमारी, पढ़ेंगे हम.. आगे बढ़ेंगे हम.. माँ-बाप का ही नहीं देश के योगदान में भागीदारी बनेंगे हम.. इन तरंगों से मन में उमंगों की लहर सरपट दौड़ती थी.. मन में हिलोरें मारने लगती थी.. पर अब न उमंग है, न तरंग, बल्कि मन का हर कोना है बेरंग..

सपने जो संजोये थे वो टूटी खाट पर.. टिमटिमाती, जलती-बुझती दीये के उस लौ में.. अंधेरी-मलिन बस्ती की तरह काली हो गई.. लाख जतन कर पुरानी किताबें तो ख़रीद पाता था, पर अब ये डिजीटल पाठ कैसे करुं.. लैपटॉप या स्मार्टफ़ोन कहाँ से लाऊँ.. बिजली इसे तो सिर्फ़ चमकते घर में देखा है और नेट कैसे एंटर करूँ.. जानता हूँ मैं अब मेरा सपना कभी न होगा अपना.. मैले कुचैले बस्ते की तरह अंदर ही दफ़्न हो जाएँगे
अब तो लबों पर
बस ये बोल हैं मेरे
सपने जो देखे थे हमने
टूटकर बिखर रहें
नारा था जो हुक्मरानों का
सब पढ़ेंगे सब बढ़ेंगे
वो तो अब पीछे छूट गये
स्कूल चलें हम
ये भी बस इक जुमला था
पाठशाला पर लगा है ताला
कहां है क़लम दवात वर्णमाला
शिक्षक हो या सहपाठी
दूर क्षितिज के बन गए ध्रुवतारा