Wednesday, 22 July 2020

शहरी ग़रीब.. बच्चों की व्यथा

शहरी ग़रीब.. बच्चों की व्यथा
ग़रीबी ये महज़ इक शब्द नहीं.. बल्कि अभिशाप है.. इसके पीछे छिपा है वो दर्द.. वो तड़प.. जिसे सिर्फ़ उसने महसूस किया, जिसने इसे जीया.. 
माँ-बाप दिहाड़ी-मज़दूरी कर चार पैसे कमा लेते थे.. दो जून की रोटी नमक के साथ पेट की आग को तो शांत कर देती थी, लेकिन कुछ सपने थे जो अब दम तोड़ रहे थे.. याद है मुझे वो दिन, काँटे से सूखे बदन पर फटे पुराने कपड़े.. बगल में दबे मैले कुचैले बस्ते, ऊँची-नीची पगडंडियों, उबड़-खाबड़ सड़कों पर भागते ये नंगे पाँव... और दिलों दिमाग में बस यही ख़ुमारी, पढ़ेंगे हम.. आगे बढ़ेंगे हम.. माँ-बाप का ही नहीं देश के योगदान में भागीदारी बनेंगे हम.. इन तरंगों से मन में उमंगों की लहर सरपट दौड़ती थी.. मन में हिलोरें मारने लगती थी.. पर अब न उमंग है, न तरंग, बल्कि मन का हर कोना है बेरंग..

सपने जो संजोये थे वो टूटी खाट पर.. टिमटिमाती, जलती-बुझती दीये के उस लौ में.. अंधेरी-मलिन बस्ती की तरह काली हो गई.. लाख जतन कर पुरानी किताबें तो ख़रीद पाता था, पर अब ये डिजीटल पाठ कैसे करुं.. लैपटॉप या स्मार्टफ़ोन कहाँ से लाऊँ.. बिजली इसे तो सिर्फ़ चमकते घर में देखा है और नेट कैसे एंटर करूँ.. जानता हूँ मैं अब मेरा सपना कभी न होगा अपना.. मैले कुचैले बस्ते की तरह अंदर ही दफ़्न हो जाएँगे
अब तो लबों पर
बस ये बोल हैं मेरे
सपने जो देखे थे हमने
टूटकर बिखर रहें
नारा था जो हुक्मरानों का
सब पढ़ेंगे सब बढ़ेंगे
वो तो अब पीछे छूट गये
स्कूल चलें हम
ये भी बस इक जुमला था
पाठशाला पर लगा है ताला
कहां है क़लम दवात वर्णमाला
शिक्षक हो या सहपाठी
दूर क्षितिज के बन गए ध्रुवतारा

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