Friday, 28 May 2021

 “प्रश्न-चिन्ह’’

हम तो अनपढ़ रह गए। मगर अपने बच्चे को हम खूब पढ़ायेंगे, लिखायेंगे, उसे बहुत से हुनर सिखायेंगे। कम से कम वह तो हम जैसा मजदूर न बने। हमारा क्या है, जितनी मर्जी मेहनत कर लें, धनवान तो नहीं बन सकते हम। मगर अपने बच्चे को हम धनवान, गुणवान बनना देखना चाहते हैं। हम एक रोटी कम खा लेंगे, मगर उसकी पढ़ाई के लिए पैसे जोड़ेंगे।
ना जाने कितनी ही देर से अपनी इन सोच में डुबी बैठी थी संध्या। लेकिन ये सोच हकीकत में तब्दील होना इतना आसान तो ना था।
दोनों मजदूरी करते हैं। जो काम मिल जाए कर लेते हैं। चाहे खेत में मिले, या किसी खेत की चहारदीवारी बनाते हुए ईंट गारा ढोने का काम मिले। चाहे किसी के यहां कुंए से पानी भर कर लाने का काम मिले।
लेकिन इस कलमुंहे कोरोना ने तो उस पर भी पहरा लगा दिया। पता नहीं कहां से ये बीमारी आ गई, जीते जी हमें मारे जा रही है।
पढ़ाई तो दूर बच्चों को दो वक्त खाना भी मुश्किल से मय्यसर हो रहा है। कितने सपने थे, कितने अरमान थे, अपने बच्चों को लेकर, इन्हें पढ़ा-लिखा एक अच्छा इंसान बनाऊंगी। पर अब तो चार पैसे जहां से आते थे, वो काम ही बंद हो गया।
सोचते-सोचते संध्या की आंखें डबडबा गई। अपने मैले-कुचैले आंचल से आंख साफ करते हुए बड़बड़ाते हुए उठ खड़ी हुई। ओह... सांझ की बेला हो गई और मैं पता नहीं किस दुनिया में गुम बैठी हो।
अपने आपसे ही चिढ़ते हुए फिर बुदबुदाने लगी, इस सोच से क्या मिलने वाला है, बच्चों के लिए चुल्हा चौका भी करना है। भूखे प्यासे बेचारा दीना(पति) भी घर आ रहा होगा। भगवान जाने आज भी काम मिली होगी या नहीं, पिछले कई दिनों से तो बेचारा खाली हाथ ही घर आ रहा है। पति का चेहरा याद कर एक बार फिर संध्या की आंखें भर आई।
समझती हूं उसकी दुख लेकिन कुछ कर भी तो नहीं पाती मैं। बेचारा सुबह दो दाने खाकर घर से इस आस में निकलता है, शायद आज कुछ काम मिल जाए, लेकिन हर दिन निराशा ही हाथ लगती है।
शाम को मुंह लटकाये, दबे पांव घर में घुसता है, ताकि बच्चे उसका बुझा चेहरा न देख पाये।
हे प्रभु.. कैसी तेरी लीला है... किसी के पास खाने को इतना है कि बच्चे को खिलाने के लिए मन मुहार करना पड़ता है, और कुछ का नसीब इतना सफेद कि उसकी पेट की आग बुझाने के लिए मन को कहीं और लगाना पड़ता है।
हे विधाता... तु भी उपर बैठ कर पता नहीं कैसा-कैसा खेल खेलता है। मां-बाप गरीब हो या अमीर... ममता तो सबकी समान है।
संध्या इन बातों में इक कदर घिरी थी कि उसे अभास तक नहीं हुआ, कब दीना घर आ गया, जब दीना ने उसे झकझोरते हुए कहा, किस दुनिया में गुम हो। आवाज़ दे-देकर मैं थक गया, तुम्हारे कानों में जूं तक नहीं रेंगी।
हड़बड़ा कर संध्या ने कहा, आग लगे इस सोच को। पता नहीं कौन सी तंद्रा में लीन थी मैं। तुम आ गये, हाथ-पैर जल्दी से धो लो।
मन ही मन बुदबुदाने लगी, अभी चुल्हा-चौका भी नहीं किया है मैंने, हे भगवान मत मारी गई थी मेरी, जब देखो.. सपने में फिरती रहती हूं मैं।
अरे... सुनो( पति को आवाज़ देते हुए) संध्या ने कहा, बच्चे अब तक बाहर से नहीं आये, देखना किधर भटक रहे हैं। ये दोनों बच्चे भी कुछ मिनट कह कर घर से बाहर निकले थे, शाम से रात हो गई पता ही नहीं अब तक इन कमब्ख्तों का।
दीना इन बातों को दरकिनार कर एक गहरी सांस लेकर कहा, आज भी कोई काम नहीं मिला, अपने मायूस चेहरे पर हाथ फेरते हुए, दीना ने एक लंबी आह भरी।
संध्या ने ढाढस बंधाते हुए कहा, कोई बात नहीं, ये बुरा वक्त सिर्फ हमारे लिए ही नहीं है, पूरे देश
की कमोबेश यही स्थिति है। तुम चिंता मत करो, भगवान की मर्जी जैसे रखेंगे वैसे रह लेंगे।
तब तक दोनों बच्चे धूल में सने हांफते-दौड़ते अम्मा.. बापू कहते हुए तीर की भांति घर में दाखिल हुए। उनकी आवाज़ से ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे उसने दुनिया फतेह कर ली हो।
दोनों के हाथों में छोटे-छोटे पॉलीथीन के कई पैकेट थे, दोनों भागते हुए अम्मा के पास पहुंचे, और हांफते हुए कहा कि अम्मा- देखो मैं ये क्या लाया हूं, छोटी बहन से उसे धकलते हुए कहा- अम्मा ये देखो मैंने ये लाया है।
संध्या और दीना के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी, संध्या ने दोनों को लगभग डांटते हुए अंदाज में कहा, क्या है ये सब ? कहां थे तुम दोनों ? कहां से लाये ये समान ? चोरी की तुमलोगों ने ?
संध्या बेटे पर थप्पड़ रसीदने ही वाली थी कि बेटा सहम कर मां की छाती से लग गया, रोते हुए कहने लगा, अम्मा... हमसे देखा नहीं जा रहा था, बापू रोज खाली हाथ, बुझे मन से घर आते हैं। और तुम भी परेशान रहती हो।
हम दोनों सामने... वो जो बड़े-बड़े से घर है ना, वहां गये थे, हमने उन घरों के मालकिन से कहा, हमारे बापू रोज काम की तलाश में घर से बाहर जाते हैं, लेकिन उन्हें कोई काम नहीं मिलता, और अम्मा के पास भी कोई काम नहीं है। घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं। अम्मा किसी ने झिड़क दिया, तो किसी ने उपर से भागने का इशारा कर दिया, लेकिन कुछ ऐसे भी थे, जिसने हमें सामान दिया।
अम्मा... तुम हमें बाहर जाने नहीं देती, ताकि हमें कोई बीमारी न लगे, लेकिन खेलने का बहाना बनाकर हम दोनों बाहर निकल गये। हम बस तुम्हारी और बापू की मदद करना चाहते थे। अम्मा माफ कर दो। इस बार बेटी भी मां की छाती से चिपट गई।
संध्या और दीना... इनके लिए तो पूरी दुनिया ही उजड़ गई थी। इतना दर्द और गरीबी का कभी एहसास नहीं हुआ था, जो वो आज महसूस कर रहे थे। वो तो अपने बच्चे को पढ़ा लिखा कर अच्छा इंसान बनाना चाहते थे, ताकि वो अपने पैर पर खड़े हो जाये, आत्मसम्मान की जिंदगी जीये, उनकी तरह मजदूरी न करें। लेकिन आज हालात ने उन्हें उस दरवाजे पर जा खड़ा कर दिया, जहां पर खड़े होकर कुछ मांगने को भीख कहते हैं।
“मेरा परिवार” एनजीओ की ये दर्दभरी सच्ची दास्तां है।
Mamta Choudhary

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